किस्सा चावल का

कहानी पुरानी नहीं है, आज कल ही की बात है | यह कहानी मिसाल है बदलते हुए ज़माने की | भिन्न- भिन्न प्रकार की साग सब्ज़िओं में फ़ैल रहे जातिवाद की निर्ममता को बढ़े आसानी से दर्शाती है ये कहानी | कुछ विद्वानों का तो यह भी मान ना है की यह कहानी आर्य पुत्रों का द्रविड़ समुदाय के ऊपर वर्चस्व ज़माने की दास्ताँ है | यह कहानी है चावल की |

भारत के उत्तरी भाग में स्थापित जो समुदाय है, उसके भोजन करने का एक अलग ही अंदाज़ होता है | एक आम दिन में ये लोग जो खाना खाते हैं, उसका विभाजन कुछ इस प्रकार किया जा सकता है :
  • सर्व प्रथम होती है दाल | इसको ब्राह्मण का दर्ज़ा प्राप्त है | गरीबों की पहुँच के बाहर इसकी अलग ही एक शान है | रोटी के साथ बढे करीने से इसको खाया जाता है | बुद्धिजीवियों का मान ना है की यह प्रोटीन का एक अच्छा स्त्रोत है, कुछ अकड़ शायद इस बात की भी है | 
  • इसके बाद बारी आती है माँस की | इसको क्षत्रिय का दर्ज़ा प्राप्त है | खेल के मैदान में या युद्ध भूमि पर झंडा फहराने वाले बढ़े फक्र से मांस का सेवन करते हैं | गरीबों के लिए ये यूनिकॉर्न के सामान है, सुना सबने है, पर देखा किसी ने नहीं | 
  • भिन्न-भिन्न प्रकार की तरकारियों को वैश्य का दर्ज़ा दिया जाता है | इनका सेवन सर्वव्यापी है | आलू का महत्व इसमें सर्वोपरि है | 
  • इसके बाद बारी आती है चावल की | इस क्रम में चावल को शूद्र की तरह खाया जाता है | भोजन के अंत में जो भी कुछ शेष रहता है, वो चाहे दाल हो, या फिर कोई सब्ज़ी, चावल में सब मिला दिया जाता है | इस हिसाब से चावल का स्वयं का कोई वज़ूद नहीं हैं | 
मुद्दे की गहराई ने कई लोगों को झिंझोड़ के रख दिया है | दक्षिण भारत में इस बात पर ख़ास तौर पर आक्रोश है | इडली, वड़ा और डोसा की धरती पर शायद येअपेक्षित भी था | अब सवाल काफी सीधा और स्पष्ट है - क्या चावल को खुद की पहचान मिलेगी ?

इसका जवाब तो वक़्त ही दे सकता है | अपनी तरफ से हम अपने पाठकों से दरखास्त करते हैं की इस जातिवाद से ऊपर उठ कर सभी प्रकार की भोज्य पदार्थों को सामान तरीके से खाएं | हम बात कर हैं मेरिटोक्रेसी की - भोज्य पदार्थों को अपने स्वाद के हिसाब से खाइये, सहूलियत के हिसाब से नहीं | 

धन्यवाद ||

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